25 Popular Surdas ke Pad with Meaning in Hindi
Surdas ke Pad – सूरदास जन्हें हिन्दी साहित्य अम्बर का सूर्य और ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है का जन्म 1478 ई. में हुआ था। सूरदास एक बहुत ही प्रतिभाशाली कवि थे जिन्हें कृष्ण के बारे में कविताएँ लिखना बहुत पसंद था। उनकी कविताएँ भावनाओं और सुंदरता से भरी हुई थीं। सूरदास की सबसे प्रसिद्ध रचना सूरसागर है। आइए पढ़ते हैं सूरदास के पद (Surdas ke Pad) अर्थ सहित.
पद (1)
चरण कमल बंदौ हरि राई।
जाकी कृपा पंगु लांघें, अंधे को सब कछु दरसाई।।
बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै, रंक चले छत्र धराई।
सूरदास स्वामी करुणामय, बार-बार बंदौं तेहि पाई।।
शब्दार्थ
चरण – पाँव
कृपा – अनुग्रह, दया
पंगु – लँगड़ा
अंधे – बिना आँख का, नेत्रहीन प्राणी
बहिरो – जिसे कान से सुनाई न दे
मूक – गूँगा
रंक – ग़रीब, दरिद्र
व्याख्या :- इस पद के माध्यम से सूरदास जी ने कान्हा की महिमा का वर्णन किया है। वह कहते है जिस पर श्री कृष्ण की कृपा हो जाए वह लंगड़ा व्यक्ति भी पहाड़ लांघ सकता है, अंधे को सब कुछ दिखाई देने लगता है, बहरे को सब कुछ सुनाई देने लगता है और गूंगा व्यक्ति बोलने लगता है। गरीबा धनवान हो जाता है। मनुष्य ईश्वर को पाने के लिए तमाम जतन करता है लेकिन जो पूरी निष्ठा के साथ कृष्ण को याद करते हैं सिर्फ उन्हें ही ये लाभ मिल पाता है।
पद (2)
अबिगत- गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूँगे मीठे फल कौ रस अंतरगत ही भावै।
‘परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै।
मन-बानी कौं अगम-अगोचर सो जानै जो पावै।
रूप-रेख-गुन-जाति-जुगति बिनु निरालंब कित धावै।
सब बिधि अगम विचारहिं ताते सर सगन- पद गावै।।
शब्दार्थ
अबिगत – अज्ञात, जो जाना न जाय अर्थात् निर्गुण
अबिगत – न बिगत, न जाना गया
गति – चाल, चलने की क्रिया, लीला, माया
कछु – कुछ
गूँगे – गूँगा, मूक व्यक्ति, बोलने में असमर्थ
रस – स्वाद, सुख, आनन्द
अंतरगत – हृदय, अन्तःकरण, चित्र
भावै – प्रिय लगता है, अच्छा लगता है, रूचिकर लगता है
परम – उत्कृष्ट, श्रेष्ठ, महान
स्वाद – रसेन्द्रिय से प्राप्त अनुभव, जायका, सुख
अमित – जिसकी कोई सीमा न हो, बहुत
तोष – सन्तोष, तुष्टि, तृप्ति
उपजावै – उत्पन्न करता है। प्रदान करता है।
अगम – जहाँ कोई न जा सके, पहुँच से बाहर
अगोचर – इन्द्रियाँ जिसका अनुभव न कर सकें, इन्द्रियों के अनुभव से परे
रूप – आकार
रेख – रेखा
गुन – गुण
जाति – वंश, कुल
जुगति – युक्ति, उपाय
निरालंब – (निर+आलम्ब) आधार रहित, आश्रय रहित
सगुन – सगुण, ब्रह्म का वह रूप जो सत्त्व, रज और तम गुणों से युक्त होने के कारण साकार माना जाता है।
व्याख्या :- सूरदास जी इस पद के माध्यम से यह बताते हैं कि निर्गुण, निराकार व अज्ञात ब्रह्म के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता अर्थात् उसकी लीला का वर्णन नहीं किया जा सकता। यह तथ्य या कथन उसी प्रकार सत्य है जिस प्रकार से गूँगा व्यक्ति मीठे फल का स्वाद या फल के खाने से प्राप्त आनन्द का अनुभव मन में तो करता है किन्तु वाणी से व्यक्त नहीं कर सकता। निर्गुण ब्रह्म का अनुभव जन्य आनन्द तो हर किसी को सदा ही चिरस्थायी संतुष्टि प्रदान करने वाला है किन्तु मन और वाणी से अगम्य अर्थात् न जाने जा सकने के कारण, इन्द्रियों की पहुँच से परे होने के कारण जो उसे प्राप्त करता है, उसी को उसका अनुभव बोध होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि निर्गुण ब्रह्म योगियों की समाधि या ध्यान का विषय है। जन साधारण के लिए उसका बोध कठिन है। सामान्य व्यक्ति के लिए उस ब्रह्म का आनन्द फल लभ्य नहीं है। एक बात और, मन को केन्द्रित करने के लिए आधार की आवश्यकता होती है। निर्गुण ब्रह्म निश्चित आकार, गुण और जाति से परे है फिर मन को कहाँ स्थिर किया जाय? लोक में हम उसी व्यक्ति या वस्तु की प्राप्ति का उपाय करते हैं, जिसके रूप, गुण और जाति वंश आदि से परिचित होते हैं। अत: आधार रहित यह मन कहाँ दौड़े। इस कारण यह सूरदास निर्गुण ब्रह्म को हर प्राकर से अगम्य जानकर श्री कृष्ण जी के (सगुण ब्रह्म के) लीला का पदों द्वारा गान किया है।
पद (3)
हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ।
समदरसी है नाम तुम्हारौ, सोई पार करौ।
इक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर बधिक परौ।
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ।
इक नदिया इक नार कहावत, मैलो नीर भरौ।
जब मिलि गए तब एक बरन हूवै, गंगा नाम परौ।
तन माया ज्यौं ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ।
कै इनको निरधार कीजिये कै प्रन जात टरौ।।
शब्दार्थ
औगुन – अवगुण, दोष, दूषण
चित – मन, अन्तःकरण
समदरसी – सबको बराबर या समान समझने वाला
सोई – वही, इसलिए, समान। इस पद में सोई का तात्पर्य ‘इसलिए’ से है
पार – उद्धार, मुक्ति
बधिक – बध करने वाला, कसाई
पारस – एक पत्थर जिसके छूते ही लोहा स्वर्ण में परिवर्तित हो जाता है
नार – नाला
नीर – जल, पानी
बरन – वर्ण, रंग
गंगा – भारत की प्रमुख एवं पवित्र नदी
माया – अज्ञानता, धनसंपत्ति, अविद्या
बिगरौ – बिगड़ गया, बुरी दशा को पहुँच गया
निरधार – निश्चित, जो टल न सके
प्रन – प्रण, प्रतिज्ञा, दृढ़ निश्चय
व्याख्या :- महाकवि सूरदास स्व आराध्य से कह रहे हैं कि – है हमारे प्रभु ! हमारे अवगुणों को अपने चित्त में न रखिए। आपको समदर्शी कहा जाता है। इस कारण से बिना गुण-दोष का विचार किए मुझे भवसागर से पार कीजिए। (मैं पार करने की जो प्रार्थना कर रहा हूँ नितान्त औचित्यपूर्ण है-) एक लोहा भगवान् की मूर्ति के रूप में घरों में, मंदिरों में पूजा हेतु रखा जाता है। वही लोहा हथियार के रूप में कसाई के घर में पशुओं को मारने के लिए रखा रहता है किन्तु पारस पत्थर में यह संदेह नहीं रहता कि वह किसे स्पर्श करे, किसे न करे। वह तो पूजा में रखे गये लोहे की मूर्ति और कसाई के घर में हत्या के निमित रखे गये लोहे के हथियार में भेद नहीं करता। ये दोनों लोहे ही है इस समानता को ध्यान में रखते हुए वह दोनों को शुद्ध स्वर्ण के रूप में परिवर्तित कर देता है अर्थात् उन्हें सोना बना देता है। (मुझे पार करने के औचित्य को आप इस उदाहरण के द्वारा भी जान सकते हैं-) एक नदी होती है, जिसमें स्वच्छ जल भरा रहता है, एक नाला होता है जिसमें गन्दा पानी भरा रहता है, जब दोनों गंगा नदी में मिल जाते हैं तो एक वर्ण के हो जाते है, उनका नाम गंगा पड़ जाता है। गंगा नदी और गन्दे नाले दोनों में भेद दृष्टि नहीं रहती है। दोनों को ही पवित्र कर देती है। (सूरदास अपने उद्धार क॑ औचित्य का बोध पुनः कराते हैं-) यह तन माया से ग्रस्त है किन्तु इसमें रहने वाला जो चैतन्य है, वह ब्रह्म का अंश है, अतएव उसे भी ब्रह्म कहा जाता है। वह शरीरस्थ ब्रह्म मुझ से मिलकर बिगड़ गया है, अपवित्र हो गया है। अत: या तो मुझ सूर में रहने वाला यह जीव आपका अंश होने के कारण उद्धार के योग्य है’ इस न्याय से इसका उद्धार कीजिए अथवा (उद्धार न करने के कारण) आप का पतितों को उद्धार करने का प्रण है, यह प्रण जा रहा है इस बात को जानिये।
पद (4)
हमारे निर्धन के धन राम।
चोर न लेत, घटत नहि कबहूँ, आवत गढैं काम।
जल नहिं बूड़त, अगिनि न दाहत है ऐसौ हरि नाम।
बैकुंठनाम सकल सुख-दाता, सूरदास-सुख-धाम।।
शब्दार्थ
निर्धन – ग़रीब
घटत – घटा हुआ , कम ,थोड़ा
आवत – आने वाला
व्याख्या :- इस पद के माध्यम से सूरदास जी ने यह बताते हैं कि संसार में जिसका कोई नहीं होता उसके श्रीराम हैं। राम नाम एक ऐसा अनोखा खजाना है जिसे कोई भी प्राप्त कर सकता है। धन-संपत्ति तो खर्च हो जाने पर कम हो जाता है, लेकिन राम नाम एक ऐसा अनमोल रत्न है, जिसे कितनी बार भी पुकारा जाए तो उसका महत्व कभी नहीं घटता। इस अनमोल रत्न को ना तो चुराया जा सकता है, ना ही इसके मूल्य को कभी घटाया जा सकता है। राम रूपी अनमोल रत्न ना तो आग में जलता है और न ही गहरे पानी में डूबता है। यानी इस संसार में मात्र एक ही चीज सत्य है, जिसे कभी भी नष्ट नहीं किया जा सकता और वह है, राम का नाम।
पद (5)
गुरू बिनु ऐसी कौन करै।
माला-तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै।
भवसागर तै बूडत राखै, दीपक हाथ धरै।
सूर स्याम गुरू ऐसौ समरथ, छिन मैं ले उधरे।।
शब्दार्थ
गुरू – आचार्य, सत्य मार्ग दिखाने वाला, पूज्य पुरुष
मनोहर – मन हरनेवाला
भवसागर – घटनाओं का सागर
व्याख्या :- सूरदास भगवान श्री कृष्ण को अपना गुरु मानते हैं और उनकी महिमा का महत्व बताते हुए कहते हैं कि गुरु के बिना इस अंधकार में डूबे संसार से बाहर निकालने वाला दूसरा और कोई भी नहीं होता। अपने शिष्यों पर गुरु के अलावा ऐसी कृपा कौन कर सकता है। संसार के मोह माया के विशाल समुद्र से एक सच्चा गुरु ही अपने शिष्य को बचाता है। ज्ञान जैसी संपत्ति को गुरु अपने शिष्य को सौंपता हैं, ताकि मानव कल्याण हो सके। ऐसे गुरु को सूरदास जी बार-बार नमन करते हैं। कवि कहते हैं कि उनके गुरु श्री कृष्ण ही उन्हें इस संसार सागर में उनकी नैया पार लगाते हैं।
पद (6)
मो सम कौन कुटिल खल कामी।
जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ, ऐसौ नोनहरामी॥
भरि भरि उदर विषय कों धावौं, जैसे सूकर ग्रामी।
हरिजन छांड़ि हरी-विमुखन की निसदिन करत गुलामी॥
पापी कौन बड़ो है मोतें, सब पतितन में नामी।
सूर, पतित कों ठौर कहां है, सुनिए श्रीपति स्वामी॥
शब्दार्थ
कुटिल – टेढ़ा, छली, चालबाज
खल – दुष्ट, दुर्जन, पाजी, लुच्चा
कामी – कामनायुक्त
पापी – पाप करनेवाला व्यक्ति
व्याख्या :- उपरोक्त पद में सूरदास जी अपने मन के बुराइयों को उजागर करते हुए, भगवान श्री कृष्ण से कृपा करने की याचना करते हैं। कवि कहते हैं कि संसार में मेरे जैसा कोई भी दूसरा कुटिल, दुष्ट और पापी नहीं है। मोह माया के बंधन में जकड़ा हुआ मैं इस शरीर को ही सुख समझ बैठा हूं। मैं नमक हराम हूं, जो अपने आराध्य अपने रचयिता को ही भूल गया। मैं गांव के कचड़ों में रह रहे सूअरों की भांति अपने जीवन में वासनाओं और बुरी आदतों में जकड़ा हुआ हूं। मैं पापी हूं क्योंकि सज्जनों और संतों की संगति छोड़कर धूर्तों की गुलामी करता हूं। भला मुझसे अधिक पापी और कौन हो सकता है? सूरदास जी भगवान श्री कृष्ण के समक्ष अपने बुराइयों को उजागर करके उनसे आश्रय की विनती करते हैं।
पद (7)
मुखहिं बजावत बेनु
धनि यह बृंदावन की रेनु।
नंदकिसोर चरावत गैयां, मुखहिं बजावत बेनु।।
मनमोहन को ध्यान धरै, जिय अति सुख पावत चैन।
चलत कहां मन बस पुरातन, जहां कछु लेन न देनु।।
इहां रहहु जहं जूठन पावहु, ब्रज बासिनि के ऐनु।
सूरदास ह्यां की सरवरि, नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु।।
शब्दार्थ
जूठन – खाने-पीने से बची हुई जूठी वस्तु, अवशिष्ट
पुरातन – पुराना, प्राचीन
सुरधेनु – कामधेनु
व्याख्या :- जिस पवित्र भूमि पर भगवान श्री कृष्ण ने जन्म लिया, उसकी गाथा गाते हुए सूरदास जी अपने इस पद में व्रजभूमि की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि जिस धरती पर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं, जहां वे बांसुरी बजाते हैं ऐसे स्वर्ग समान ब्रजभूमि की जितनी प्रशंसा की जाए उतना कम होगा। ब्रजभूमि में मन समस्त प्रकार के दुखों को भूलकर शांत हो जाता है। यहां भगवान श्री कृष्ण के स्मरण मात्र से मन में एक नई ऊर्जा का आगमन होता है। अपने ही मन को समझाते हुए सूरदास जी यह भी कहते हैं कि हे मन! तू इस माया रुपी संसार में यहां वहां क्यों भटकता है, तू केवल वृंदावन में रहकर अपने आराध्य श्री कृष्ण की स्तुति कर। केवल ब्रजभूमि में रहकर ब्रज वासियों के जूठे बर्तनों से जो कुछ भी अन्न प्राप्त हो उसे ग्रहण करके संतोष कर तथा श्री कृष्ण की आराधना करके अपना जीवन सार्थक कर। जहां स्वयं परमात्मा ने जन्म लिया हो ऐसी पवित्र भूमि की बराबरी स्वयं कामधेनु भी नहीं कर सकती हैं।
पद (8)
जसोदा हरि पालनैं झुलावै।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-सोई कछु गावै।
मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै।
तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै।
‘कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन हवै के रहि करि करि सैन बतावै।
इहिं अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुर गावै।
जो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ सो नैंद-भामिनि पावै।।
शब्दार्थ
पालनै – हिंडोले में
हलरावै – हलराती है, हिलाती हैं, हिलाना-डुलाना
दुलराइ – दुलार करके, लाड़-प्यार करके
मल्हावै – मेल्हाती हैं, चुमकारती है, पुचकारती हैं
निंदरिया – निद्रा, नींद
सुवावै – सुलाती है
बेगहिं – शीघ्र, तुरंत, चटपट, जल्दी से
पलक – आँख के ऊपर का पतला आवरण
अधर – नीचे का ओठ, ओठ
फरकावै – फड़काते हैं, हिलाते हैं
सैन – आँख या अंगुली का इशारा, संकेत
अन्तर – भेद, अलगाव, मध्यवर्ती काल, बीच का समय
भामिनि – स्त्री, नारी
व्याख्या :- इस पद में भक्त-कवि सूरदास ने भगवान बालकृष्ण की शयनावस्था का सुंदर चित्रण किया है। वह कहते हैं कि मैया यशोदा श्रीकृष्ण को पालने में झुला रही हैं। कभी तो वह पालने को हल्का-सा हिला देती हैं, कभी कन्हैया को प्यार करने लगती हैं और कभी दुलार करने लगती हैं। कभी वह गुनगुनाने भी लगती हैं। लेकिन कन्हैया को तब भी नींद नहीं आती है इसलिए यशोदा नींद को उलाहना देती हैं कि अरी निंदिया तू आकर मेरे लाल को सुलाती क्यों नहीं? तू शीघ्रता से क्यों नहीं आती? देख, तुझे कान्हा बुलाता है। जब यशोदा निंदिया को उलाहना देती हैं तब श्रीकृष्ण कभी तो पलकें मूंद लेते हैं और कभी होंठों को फड़काते हैं। जब कन्हैया ने नयन मूंदे तब यशोदा ने समझा कि अब तो कान्हा सो ही गया है। तभी कुछ गोपियां वहां आई। गोपियों को देखकर यशोदा उन्हें संकेत से शांत रहने को कहती हैं। इसी अंतराल में श्रीकृष्ण पुन: कुनमुनाकर जाग गए। तब यशोदा उन्हें सुलाने के उद्देश्य से पुन: मधुर-मधुर लोरियां गाने लगीं। अंत में सूरदास नंद बाबा की पत्नी यशोदा के भाग्य की सराहना करते हुए कहते हैं कि सचमुच ही यशोदा बड़भागिनी हैं। क्योंकि ऐसा सुख तो देवताओं व ऋषि-मुनियों को भी दुर्लभ है।
पद (9)
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु-तन-मंडित, मुख दधि लेप किए।
चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन-तिलक दिए।
लट-लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए।
‘कठुला कंठ, बज़ केहरि नख, राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एको पल इहिं सुख, को सत कल्प जिए।।
शब्दार्थ
सोभित – सुशोभित
कर – हाथ
नवनीत – ताजा मक्खन
घुटुरुनि – घुटनों के बल
मंडित – सुशोभित
चारू – सुन्दर, मनोहर
कपोल – गाल
लोल -चंचल
लोचन – आँखें
गोरोचन – सफेद चन्दन, एक प्रकार का सुगंधित द्रव्य
लट लटकनि – बालों का लटकना या झूलना
मनु – मानो
मत्त – मदमस्त
मधुप – अमर, भौरा
मादक – मद उत्पन्न करने वाले, नशीला, जिसमें नशा हो
मधुहि – शहद, रस
कठुला – बच्चों के गले में पहनाने की एक माला
बज्र – इन्द्र का शस्त्र, कुलिश, दृढ़, बहुत मजबूत
केहरिनख – बघनखा, केहरि (बाघ) का नख
राजत – सुशोभित
सत – सौ
कल्प – काल का एक विभाग जो चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष का होता है और ब्रह्मा का एक दिन कहलाता है।
व्याख्या :– बालक कृष्ण हाथ में मक्खन लिए हुए शोभित हो रहे हैं। वे घुटनों के बल चल रहे हैं और उनका शरीर धूल से सुशोभित हो रहा है। वे हाथ से भोजन करना भली-भाँति सीख न पाने के कारण मुख पर दही लगाए हुए हैं। उनके गाल सुन्दर हैं, आँखें चंचल है अर्थात् इधर-उधर देख रहे हैं। अपने ललाट पर सुगंधित सफेद चन्दन का टीका लगाए हुए हैं। उनके बालों की लटें अर्थात् बालों के समूहों का कपोलों पर लटकना ऐसा प्रतीत हो रहा है मानों भ्रमरों के समूह मद उत्पन्न करने वाले पुष्प-मधु को पीकर मतवाले हो रहे हो। बालक कृष्ण गले में ‘कठुला’ नामक आभूषण धारण किए हुए हैं तथा उनके हृदय पर मजबूत ‘बघनखा’ सुशोभित हो रहा है। सूरदास जी कहते हैं कि बालक के इस सुन्दर रूप ने धन्य कर दिया और उसके रुचिर रूप का दर्शन प्राप्त करके कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो सौ कल्पों तक जीना चाहेगा? अथवा सौ कल्पों तक जीने के सुख का प्रयोजन क्या? क्योंकि वह सुख बालक कृष्ण के रूप दर्शन से एक ही पल में प्राप्त हो गया है।
पद (10)
धेनु चराए आवत
आजु हरि धेनु चराए आवत।
मोर मुकुट बनमाल बिराज, पीतांबर फहरावत।।
जिहिं जिहिं भांति ग्वाल सब बोलत, सुनि स्त्रवनन मन राखत।
आपुन टेर लेत ताही सुर, हरषत पुनि पुनि भाषत।।
देखत नंद जसोदा रोहिनि ,अरु देखत ब्रज लोग।
सूर स्याम गाइन संग, आए मैया लीन्हे रोग।।
शब्दार्थ
मुकुट – ताज (जैसे—मुकुट धारण करना)
पीतांबर – पीले रंग का वस्त्र
सुर – देवता
भाषत – हृदय की प्रफुल्लता
व्याख्या :- श्री कृष्णा अपनी गायों को वन में ग्वालों के साथ चरवाने ले जाते हैं, जिसका वर्णन सूरदास जी ने इस अद्भुत रचना में किया है। पहले दिन जब कान्हा अपने मित्रों के संग वन में गायों को चराने जाते हैं, तो श्री कृष्ण के मुकुट में मोर का पंख बहुत ही सुशोभित हो रहा है। पितांबरी धारण किए हुए तथा बांसुरी लिए हुए श्री कृष्ण गायों के साथ बहुत ही अच्छे लग रहे हैं। जिस प्रकार ग्वालें गायों को चराते हुए आगे बढ़ रहे हैं, उनके शब्दों को सुनकर बालकृष्ण भी उन्हीं की भांति गायों को चरवा रहे हैं। इस सुंदर दृश्य को बृजवासी तथा नंद बाबा यशोदा मैया तथा रोहिणी दूर से ही देखकर प्रसन्न चित्त हो रहे हैं। जब गायों को चराने के पश्चात कान्हा पुनः लौटते हैं, तो यशोदा मैया अपने लल्ला को हृदय से लगाकर उनकी बलैया लेती है।
पद (11)
मैया री मोहिं माखन भावै।
मधु मेवा पकवान मिठा मोंहि नाहिं रुचि आवे।
ब्रज जुवती इक पाछें ठाड़ी सुनति स्याम की बातें।
मन-मन कहति कबहुं अपने घर देखौ माखन खातें॥
बैठें जाय मथनियां के ढिंग मैं तब रहौं छिपानी।
सूरदास प्रभु अन्तरजामी ग्वालि मनहिं की जानी॥
शब्दार्थ
मधु – शहद
मथनियां – वह मटका जिसमें दही मथा जाता है
ढिंग – पास या निकट होने की अवस्था
अन्तरजामी – मन (हृदय) की बात जाननेवाला
व्याख्या :- सूरदास जी ने उपरोक्त पद में कृष्ण और यशोदा माता के बीच की वार्ता का वर्णन किया है। कहते है कि श्री कृष्ण अपनी मैया यशोदा से कह रहे हैं कि मैया मुझे मेवा, मिष्ठान, पकवान और मधु कुछ भी अच्छा नहीं लगता। मुझे केवल माखन ही पसंद है। इस वार्ता को एक ग्वालिन छुपकर सुन रही थी और मन ही मन सोच रही थी कि हे कृष्णा! तुमने कभी अपने घर से माखन खाया है। मेरे घर से ही तो तुम सदैव माखन चुरा के खाते हो। उपरोक्त रचना में सूरदास जी का आशय है कि श्रीकृष्ण भगवान अंतर्यामी है। बिना कुछ कहे ही वह मन की बात समझ जाते हैं। जिस तरह वे उस ग्वालन के मन की बात जान गए थे।
पद (12)
मैया हों न चरैहौं गाइ।
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसों, मेरे पाईं पिराइ ॥
जौंन पत्याहि पूछि बलदाउहिं, अपनी सौंहँ दिवाइ ।
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ ॥
मैं पठेवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ ।
सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ ॥
शब्दार्थ
हौं – मै
सिगरे – सम्पूर्ण
पिराई – पीड़ा
पत्याहि – विश्वास
सौंहँ – कसम
रिसाइ – गुस्सा
पठवति – भेजती हूँ
रिंगाइ – दौड़ाकर
व्याख्या :- श्रीकृष्ण कहते हैं, “मैया! मैं गाय चराने नहीं जाऊँगा। सभी गोपबालक मुझसे ही गायें हँकवाते हैं। दौड़ते-दौड़ते मेरे पैर दर्द करने लगते हैं। यदि तुझे मुझ पर भरोसा न हो तो दाऊ को अपनी कसम देकर पूछ लो।” सूरदास जी कहते हैं, यह सुनकर मैया यशोदा रुष्ट होकर ग्वालों को गाली देती है, और बोलती है कि, “मैं तो अपने पुत्र को इसलिये भेजती हूँ कि वह अपना मन बहला आये, मेरा कृष्ण निरा बालक है, उसे सब दौड़ा-दौड़ाकर मार ही डालते हैं।”
पद (13)
मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।
मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ?
कहा करौं इहि के मारें खेलन हौं नहि जात।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात?
गोरे नन्द जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात।
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत हँसत-सबै मुसकात।
तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुँ न खीझै।
मोहन मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै।
सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मौहिं गोधन की सौं, हौं माता तो पूत॥
शब्दार्थ
पुनि-पुनि – बार बार
तात – पिता
गात – शरीर, देह
चुटकी – किसी पर तन्ज़ करना
व्याख्या :- बालक श्रीकृष्ण मैया यशोदा से कहते हैं, कि बलराम भैया मुझे बहुत चिढ़ाते हैं। वे कहते हैं कि तुमने मुझे दाम देकर खरीदा है, तुमने मुझे जन्म नहीं दिया है। इसलिए मैं उनके साथ खेलने नहीं जाता हूँ, वे बार-बार मुझसे पूछते हैं कि तुम्हारे माता-पिता कौन हैं। नन्द बाबा और मैया यशोदा दोनों गोरे हैं, तो तुम काले कैसे हो गए। ऐसा बोल-बोल कर वे नाचते हैं, और उनके साथ सभी ग्वाल-बाल भी हँसते हैं। तुम केवल मुझे ही मारती हो, दाऊ को कभी नहीं मारती हो। तुम शपथ पूर्वक बताओ कि मैं तेरा ही पुत्र हूँ। कृष्ण की ये बातें सुनकर यशोदा मोहित हो जाती है।
पद (14)
मुख दधि लेप किए सोभित, कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किए॥
चारु, कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
कठुला कंठ, वज्र केहरि नख, राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख, का सत कल्प जिए॥
शब्दार्थ
नवनीत – मक्खन, माखन
घुटुरुनि – घुटने के बल
चारु – सुंदर
कपोल – गाल
मधुप – भौंरा
कल्प – युग (जैसे—कल्प का अंत, कल्पांत)
व्याख्या :- भगवान श्रीकृष्ण अभी बहुत छोटे हैं और यशोदा के आंगन में घुटनों के बल चलते हैं। उनके छोटे से हाथ में ताजा मक्खन है और वे उस मक्खन को लेकर घुटनों के बल चल रहे हैं। उनके शरीर पर मिट्टी लगी हुई है। मुँह पर दही लिपटा है, उनके गाल सुंदर हैं और आँखें चपल हैं। ललाट पर गोरोचन का तिलक लगा हुआ है। बालकृष्ण के बाल घुंघराले हैं। जब वे घुटनों के बल माखन लिए हुए चलते हैं तब घुंघराले बालों की लटें उनके कपोल पर झूमने लगती है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो भौंरा मधुर रस पीकर मतवाले हो गए हैं। उनका सौंदर्य उनके गले में पड़े कंठहार और सिंह नख से और बढ़ जाती है। सूरदास जी कहते हैं कि श्रीकृष्ण के इस बालरूप का दर्शन यदि एक पल के लिए भी हो जाता तो जीवन सार्थक हो जाए। अन्यथा सौ कल्पों तक भी यदि जीवन हो तो निरर्थक ही है।
पद (15)
बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं, खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा, करत फिरत माखन दधि चोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं, खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि, बातनि भुरइ राधिका भोरी॥
शब्दार्थ
बूझत – पूछना. जानना
स्याम – श्याम, कृष्ण
गोरी – सुंदर युवा लड़की
काकी – किसकी
कहूं – कभी भी
ब्रज – मथुरा- वृंदावन का क्षेत्र
खोरी – गलियाँ, रास्ते
काहे – किसलिए, क्यों
ब्रजतन – ब्रज की तरफ, ब्रज के पास
आवतिं – आयेंगे
रहहिं – रहते हैं
पौरी – देहरी, दरवाज़ा, घर का प्रवेश द्वार
स्त्रवननि – औरतों से
ढोटा – बेटा, पुत्र
माखन-दधि – मक्खन और दही
कहा – क्या
लैहैं – ले लेंगे, करेंगे
संग – साथ में
मिलि जोरी – मिलकर जोड़ी बनाते हैं/ मिल-जुल कर
रसिक – प्रेमी, प्यार करने वाले
सिरोमनि – शिरोमणि, सबसे बड़े, नेता
बातनि – बातों ही बातों में
भुरइ – भुला दिया, बेवकूफ बना दिया
व्याख्या :- सूरदास जी ने श्रीकृष्ण और राधा के प्रथम मिलन का वर्णन इस पद में किया है । कहते है कि श्रीकृष्ण राधा से पूछते है कि हे गोरी ! तुम कौन हो? कहां रहती हो? किसकी पुत्री हो? हमने पहले कभी ब्रज की इन गलियों में तुम्हें नहीं देखा। राधा ने कहा कि हम ब्रज की ओर आती ही नहीं है। इधर आने का हमारा कोई प्रयोजन ही नहीं है, कोई विवशता नहीं है। हम तो अपनी दहलीज पर ही खेला करती हैं। हां, औरतों से सुना करते है कि नंद जी का लड़का माखन की चोरी करता फिरता है। तब कृष्ण ने कहा कि हमने तुम्हारा क्या चुराया है, जो तुम हम पर चोरी का आरोप लगा रही हो। फिर उन्होंने कहा कि अब तो तुम हमारे साथ खेलने चलो। सूरदास जी कहते हैं कि रसिकों के शिरोमणि, रसिकों में प्रमुख कृष्ण ने अपनी चालाकी पूर्ण बातों से भोली-भाली राधा को बहका लिया। उसके साथ खेलने की बात मनवा ली, स्वीकार कर ली।
पद (16)
मधुकर स्याम हमारे चोर।
मन हरि लियौ तनक चितवनि मैं, चपल नैन की कोर॥
पकरे हुते हृदय उर अंतर, प्रेम प्रीति के जोर।
गए छंड़ाइ तोरि सब बंधन, दै गए हँसनि अँकोर॥
चौंकि परी जागत निसि बीती, दूत मिल्यौ इक भौंर।
सूरदास प्रभु सरबस लुट्यो, नागर नवल किसोर॥
मधुकर – भ्रमर
तनक – थोड़ा-सा
नैन की कोर – नेत्रों की कटाक्ष
तोरि – तोड़कर
अँकोर – रिक्त, भेंट
निसि – राते
सरबस – सर्वस्व
नागर – चतुर
नवल किसोर – कृष्णा
व्याख्या :- गोपियाँ कहती हैं कि हे मधुकर अर्थात् हे उद्धव! कृष्ण हमारे चोर हैं। उन्होंने अपनी जरा-सी मधुर दृष्टि तथा चंचल नेत्रों के कराक्ष से, अर्थात् प्रेमपूर्ण तिरछे नेत्रों से हमारे मन को हर लिया है । जब उन्होंने हमारा मन चुरा लिया है तो हमने भी उन्हें प्रेम और स्नेह के बल द्वार पकड़कर अपने ह्रदय के अंदर दृढ़ता से बंद कर लिया है, अर्थात् उनकी माधुरी-छवि को अपने हृदय में स्थापित कर लिया है। लेकिन वे हमसे ज्यादा चतुर और बलशाली निकले, जो कि हमारे प्रेम-स्नेह के सारे बंधन तोड़ कर चले गये, स्वयं को हमारे बंधनों से छुड़ा ले गये और बदले में हमें भेंट-स्वरूप अपनी मन्द मुस्कान दे गये। जब वे मुस्कराकर हमारा सब कुछ लूट कर ले गये तो तब हम मोह-निद्रा से जागकर चौंक पड़ी, रात बीतने पर हमें होश आया तो प्रात: एक भौंरा दूत रूप में मिला, अर्थात् उद्धव के दर्शन हुए। सूरदासजी वर्णन करते हैं कि गोपियाँ उद्धव को लक्ष्य कर कहने लगीं कि चतुर रसिक कृष्ण ने हमारा सर्वस्व लूट लिया और अब हमारे हृदय में स्थित उनकी मधुर छवि को भी उद्धव रूपी दूत छीनने के लिए आया है, इसके आने से हमारी वेदना और भी बढ़ गयी है।
पद (17)
संदेसनि मधुबन कूप भरे।
अपने तो पठवत नहीं मोहन, हमरे फिरि न फिरे॥
जिते पथिक पठए मधुबन कौं, बहुरि न सोध करे।
कै वै स्याम सिखाइ प्रमोधे, के कहूँ बीच मरे॥
कागद गरे मेघ, मसि खूटी, सर-दव लागि जरे॥
सेवक सूर लिखन कौ आंधौ, पलक कपाट अरे॥
संदेसनि – संदेशों से
मधुबन – मथुरा
कूप – कुआँ
पठवत – भेजना
फिरे – लौटे
बहुरि – फिर
सोध – खोज
प्रमोधे – वश में कर लिये, मुग्ध कर लिये
मसि – स्याही
सर-दव – सरकण्डों की आग
अरे – अड़ गये
व्याख्या :- गोपियां श्रीकृष्ण के उपेक्षापूर्ण व्यवहार पर चोट करते हुए कह रही हैं कि उन्होंने अब तक इतने संदेश श्रीकृष्ण के पास भिजवाए हैं कि उनसे मथुरा के समस्त कुएँ भर गए होंगे। मथुरा के जन-जन को हमारे संदेशों का पता चल गया होगा। श्रीकृष्ण जान. बूझकर हमारी उपेक्षा कर रहे हैं। वे अपने संदेश तो भेजते ही नहीं। हमारे द्वारा संदेश ले गए लोग भी इधर लौटकर नहीं आए। ऐसा लगता है कि कृष्ण ने उनको सिखाकर अपने साथ मिला लिया है। लौटकर नहीं आने दिया है या फिर वे बेचारे कहीं बीच में ही मर गए। यदि ऐसा न होता तो वे अवश्य लौटकर आए होते। ऐसा भी हो सकता है कि मथुरा के सारे कागज वर्षा में भीग कर गल गए हों या फिर वहाँ की सारी स्याही ही समाप्त हो गई हो? हो सकता है वहाँ कलम बनाने के लिए काम आने वाले सरकंडे ही वन की आग में जलकर भस्म हो गए हो। यह भी हो सकता है कि श्रीकृष्ण का पत्रों का उत्तर लिखने वाला सेवक ही अंधा हो गया हो। उसके नेत्रों के पलकरूपी किवाड़ ही न खुल पा रहे हो। इनमें से कोई भी कारण अवश्य रहा होगा, तभी हमारे संदेशों का उत्तर हमें अब तक नहीं मिला।
पद (18)
ऊधौ मन माने की बात।
दाख छुहारा छांड़ि अमृत फल, बिघकीरा बिष खात॥
ज्यों चकोर कों देई कपूर कोउ, तजि अंगार अघात।
मधुप करत घर कोरि काठ मैं, बंधत कमल के पात॥
ज्याँ पतंग हित जानि आपनो, दीपक सौं लपटात।
सरदास जाकौं मन जासौ, सोई ताहि सहात॥
शब्दार्थ
दाख – किशमिश
छुहारा – एक प्रकार का मेवा
कीरा – कीड़ा
अघात – तृप्त होना
मधुप – भौंरा
कोरि – छेदकर
पतंग – पतंगा
सोई – वही
सुहात – अच्छा लगना
व्याख्या :- उद्धव द्वारा कृष्ण को भुलाकर योग साधना करने का उपदेश दिए जाने, गोपियाँ कह रही हैं-हे उद्धव! कृष्ण जैसे भी हैं, हमें प्रिय हैं। यह तो मन को मानने की बात है। मन जिससे संतुष्ट रहे, वही उसे प्रिय लगता है, वह उसे त्याग नहीं सकता है। जैसे विष का कीड़ा किशमिश और छुहारे जैसे अमृत-समान मधुर फलों को छोड़कर विष को ही खाता है, क्योंकि उसका मन तो उसी विषमय पदार्थ से संतुष्ट रहता है। इसी प्रकार कोई चकोर को कपूर जैसा शीतल पदार्थ खाने को दे, तो वह उसे छोड़कर अंगारों को ही खाने से अपनी भूख मिटाता है। भौंरा कठोर काठ को अन्दर से कोरकर या छेद कर अपना घर बनाता है, लेकिन फिर भी वह कमल में बैठा रहता है और सूर्यास्त होने पर उसी के कोश में बन्दी हो जाता है। इसी प्रकार पतंगा भी दीपक पर लिपट कर अपने प्राणों का उत्सर्ग करने में ही अपना हित समझता है, क्योंकि उसका मन उसी पर आसक्त रहता है। सूरदास वर्णन करते हैं कि गोपियों ने कहा – हे उद्धव! जिसका जिससे लगाव रहता है, उसे वही अच्छा लगता है। हमारा मन श्रीकृष्ण से लगा है। हमें वही सुहाते हैं। आपके योग को स्वीकार कर पाना हमारे बस की बात नहीं।
पद (19)
निरगुन कौन देस कौ बासी।
मधुकर, कहि समुझाइ, सौंह दै बूझति साँच न हाँसी॥
को है जनक, कौन है जननी, कौन नारि, को दासी ।
कैसे बरन, भेष है कैसौ, किहिं रस मैं अभिलाषी॥
पावैगौ पुनि कियौ आपनौ, जौ रे करैगौ गाँसी।
सुनत मौन है रह्यौ बावरी, सूर सबै मति नासी॥
शब्दार्थ
मधुकर – भ्रमर, किन्तु यहाँ उद्धव के लिए प्रयोग हुआ है।
सौंह – शपथ
साँच – सत्य
हाँसी – हँसी
जनक – पिता
बरन – रंग, वर्ण
गाँसी – छल-कपट
बावरी – बावला, पागल
नासी – नष्ट हो गयी
व्याख्या :- गोपियाँ ‘भ्रमर’ की अन्योक्ति से उद्धव को सम्बोधित करती हुई पूछती हैं कि हे उद्धव! तुम यह बताओ तुम्हारा वह निर्गुण ब्रह्म किस देश का रहने वाला है? हम तुमको शपथ दिलाकर सच-सच पूछ रही हैं, कोई हँसी (मजाक) नहीं कर रही हैं। तुम यह बताओ कि उस निर्गुण का पिता कौन है? उसकी माता का क्या नाम है? उसकी पत्नी और दासियाँ कौन-कौन हैं? उस निर्गुण ब्रह्म का रंग कैसा है, उसकी वेशभूषा कैसी है और उसकी किस रस में रुचि है? गोपियाँ उद्धव को चेतावनी देती हुई कहती हैं कि हमें सभी बातों का ठीक-ठीक उत्तर देना। यदि सही बात बताने में जरा भी छल-कपट करोगे तो अपने किये का फल अवश्य पाओगे। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों के ऐसे प्रश्नों को सुनकर ज्ञानी उद्धव ठगे-से रह गये और उनका सारा ज्ञान-गर्व अनपढ़ गोपियों के सामने नष्ट हो गया।
पद (20)
आयो घोष बड़ो व्योपारी।
लादि खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आय उतारी।
फाटक दै कर हाटक माँगत भोरै निपट तु धारी।
धुर ही तें खोटो खायो है, लये फिरत सिर भारी।
इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अजानी ?
अपनो दूध छाँड़ि को पीवै खार कूप को पानी।
ऊधो जाहु सबार यहाँ तें बेगि गहरु जनि लावौ।
मुँहमाग्यो पैहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखावौ।।
शब्दार्थ
घोष – अहीरों का ग्राम या बस्ती।
खेप – माल का बोझ ।
फाटक – भूसा, सारहीन तत्व, लक्षणा से अर्थ होगा निर्गुण ब्रह्म ।
हाटक – स्वर्ण लक्षणा से अर्थ होगा – प्रियतम कृष्ण ।
भौरें – धोखा, भ्रम ।
निपट – निरा, केवल, एकमात्र, बिलकुल ।
घुर ही – शुरुआत से ही अर्थात् जड़ से ही ।
खोटो – बुरा ।
फिरत – घूमता है, डोलता है ।
डहकावै – अपने आप ठगी का शिकार होना, धोखा खाना ।
अजानी – अज्ञानी
खार कूप – खारे जल का कुआँ,लक्षण से अर्थ होगा निर्गुण का संदेश ।
सबार – सुबह, प्रात: काल
बेगि – शीघ्र, जल्दी
गहरू – विलम्ब
साहुहि – साहूकार, लक्षणा से अर्थ होगा कृष्ण, महाजन
व्याख्या – गोपियाँ उद्धव को सुनाकर आपस में बातें कर रही हैं कि अहीरों की इस बस्ती में गंभीर ज्ञान और योग का खेप लादकर एक बड़ा व्यापारी आया हुआ है। उसने इस खेप को ब्रज में आकर उतार दिया है। वह निर्गुण ब्रह्म रूपी निस्सार वस्तु देकर श्रीकृष्ण रूपी स्वर्ण माँग रहा है जिससे ज्ञात होता है कि उसने अपने मन में एकमात्र धोखा देने का निश्चय कर लिया है। उसके मन में प्रारम्भ से ही खोटापन है। इसी कारण इसके माल को कोई खरीदता नहीं है। न खरीदने के कारण यह अपने भारी माल को लेकर इधर-उधर घूमता है। ऐसा कौन अज्ञानी होगा जो इसके कहने पर धोखा खा जायेगा। अर्थात् कृष्ण प्रेमरूपी स्वर्ण देकर निर्गुण ब्रह्म को उपदेश रूपी निःसार वस्तु प्राप्त करेगा। कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो कृष्ण भक्ति रूपी दूध को त्याग कर ब्रह्म ज्ञान रूपी खारे-कुएँ का पानी पीना चाहेगा। हे उद्धव! यहाँ से शीघ्र ही चले जाओं, विलम्ब मत करो। सूरदास गोपियों के अन्तिम कथन को बताते हुए कहते हैं- हे उद्धव ! तुम प्रभु रूपी साहूकार को लाकर दिखा दो तो तुम्हें मुँह माँगा धन प्राप्त होगा।
पद (21)
मीन वियोग न सहि सकै, नीर न पूछै बात।
देखि जु तू ताकी गतिहि, रति न घटै तन जात॥
शब्दार्थ
मीन – मछली
वियोग – विच्छेद
नीर – पानी
जात – कुल, वंश, नस्ल, जाति बिरादरी
व्याख्या :- सूरदास जी कहते हैं चाहे पानी मछली की बात भी नहीं पूछता फिर भी मछली पानी का वियोग नहीं सह सकती, मछली के प्रेम की निराली गति को देखो कि इसका शरीर चला जाता है तो भी उसका पानी के प्रति प्रेम रत्ती-भर भी कम नहीं होता। कहने का अर्थ है अपनी जड़ों को कभी नहीं छोड़ना चाहिए निस्वार्थ भाव से धर्म, कर्म के काम करने वालों को कभी दुख और दरिद्रता का मुंह नहीं देखना पड़ता।
पद (22)
सदा सूँघती आपनो, जिय को जीवन प्रान।
सो तू बिसर्यो सहज ही, हरि ईश्वर भगवान्॥
शब्दार्थ
सदा – हर समय, हर वक्त
सूँघती – नाक द्वारा किसी प्रकार की गंध का ग्रहण या अनुभव करना
प्रान – शरीर की वह वायु जिससे मनुष्य जीवित रहता है
व्याख्या :- जो ईश्वर सदा अपने साथ रहने वाला है, प्राणों का भी प्राण है, उस प्रभू को तूने अनायास ही बातों ही बातों में भुला दिया है।
पद (23)
कह जानो कहँवा मुवो, ऐसे कुमति कुमीच।
हरि सों हेत बिसारिके, सुख चाहत है नीच॥
शब्दार्थ
कहँवा – कटु, कड़आ, जो भला न लगे
सुख – आनंद, आराम
कुमति – बुरी बुद्धिवाला
नीच – अधम, निकृष्ट, नीच पुरुष
व्याख्या :- सूरदास जी इस पद के माध्यम से मनुष्य के उस कड़वे सच को बयां कर रहे हैं जिसका सामना कलियुग में हर व्यक्ति कर रहा है। वह कहते हैं कि यह मनुष्य जाने कैसा दुष्ट बुद्धि वाला है, जो यह भगवान से प्रेम और भक्ति को छोड़कर संसार के मोह-माया के पीछे भाग रहा है। जो असली सुख कृष्ण की भक्ति में है वह सृष्टि के किसी तत्व में नहीं है।
पद (24)
जो पै जिय लज्जा नहीं, कहा कहौं सौ बार।
एकहु अंक न हरि भजे, रे सठ ‘सूर’ गँवार॥
शब्दार्थ
लज्जा – शर्म, हया, लाज
व्याख्या :- सूरदास जी कहते हैं कि हे गँवार दुष्ट, अगर तुझे अपने दिल में शर्म नहीं है, तो मैं तुझे सौ बार क्या कहूँ क्योंकि तूने तो एक बार भी भगवान् का भजन नहीं किया।
पद (25)
सुनि परमित पिय प्रेम की, चातक चितवति पारि।
घन आशा सब दुख सहै, अंत न याँचै वारि॥
शब्दार्थ
चातक – पपीहा पक्षी
चितवति – किसी की ओर प्रेम-पूर्वक देखने का ढंग
पारि – ओर तरफ
घन – मेघ, बादल
आशा – उम्मीद, वस्तु-प्राप्ति का विश्वास
दुख – तकलीफ़, दर्द, पीड़ा
वारि – पानी, जल
व्याख्या :- प्रिय के प्रेम के या परिणाम की महत्ता को जानकर या सुनकर पपीहा बादल की ओर निरंतर देखता रहता है। उसी मेघ की आशा से सब दु:ख सहता है पर मरते दम तक भी पानी के लिए प्रार्थना नहीं करता। सच्चा प्रेम अपने प्रेमी से कभी कुछ नहीं माँगता या चाहता।